विधि
व्रती को इस दिन प्रातःकालीन नित्य कर्मों से निवृत्त होकर स्वच्छ व शीतल जल से स्नान करना चाहिए.स्नान के बाद “मम गेहे शीतलारोगजनितोपद्रव प्रशमन पूर्वकायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिये शीतलाष्टमी व्रतं करिष्ये” मंत्र से संकल्प लेना चाहिए.संकल्प के बाद विधि-विधान तथा सुगंधयुक्त गंध व पुष्प आदि से माता शीतला का पूजन करें. इसके बाद एक दिन पहले बनाए हुए (बासी) खाना, मेवे, मिठाई, पूआ, पूरी आदि का भोग लगाएं. यदि आप चतुर्मासी व्रत कर रहे हो तो भोग में माह के अनुसार भोग लगाएं, जैसे- चैत्र में शीतल पदार्थ, वैशाख में घी और मीठा सत्तू, ज्येष्ठ में एक दिन पूर्व बनाए गए पूए तथा आषाढ़ में घी और शक्कर मिली हुई खीर.भोग लगाने के बाद शीतला स्तोत्र का पाठ करें और यदि यह उपलब्ध न हो तो शीतला अष्टमी की कथा सुनें. रात्रि में (जगराता करें) दीपमालाएं प्रज्ज्वलित करें.
कथा
बसौड़ा की पूजा माता शीतला को प्रसन्न करने के लिए की जाती है. कहते हैं कि एक बार किसी गांव में गांववासी शीतला माता की पूजा-अर्चना कर रहे थे और गांववासियों ने गरिष्ठ भोजन माता को प्रसादस्वरूप चढ़ा दिया. शीतलता की प्रतिमूर्ति मां भवानी का मुंह गर्म भोजन से जल गया और वे नाराज हो गईं. उन्होंने कोपदृष्टि से संपूर्ण गांव में आग लगा दी. बस केवल एक बुढ़िया का घर सुरक्षित बचा हुआ था. गांव वालों ने जाकर उस बुढ़िया से घर न जलने के बारे में पूछा तो बुढ़िया ने मां शीतला को गरिष्ठ भोजन खिलाने वाली बात कही और कहा कि उन्होंने रात को ही भोजन बनाकर मां को भोग में ठंडा-बासी भोजन खिलाया. जिससे मां ने प्रसन्न होकर बुढ़िया का घर जलने से बचा लिया.
बुढ़िया की बात सुनकर गांव वालों ने मां से क्षमा मांगी और रंगपंचमी के बाद आने वाली सप्तमी के दिन उन्हें बासी भोजन खिलाकर मां का बसौड़ा पूजन किया.
इस दिन व्रती को चाहिए कि वह स्वयं तथा परिवार का कोई भी सदस्य किसी भी प्रकार के गरम पदार्थ का सेवन न करें. इस व्रत के लिए एक दिन पूर्व ही भोजन बनाकर रख लें तथा उसे ही ग्रहण करें.
चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की सप्तमी-अष्टमी को माता शीतला की पूजा और व्रत करने का महत्व है. इस दिन को बसौड़ा अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है.
||जय शीतला माता||